saraju bhaiya by Ramvriksha Benipuri

Nov. 25, 2023 by shrikant patel Posted in education Category 0 Comments 280 Views

saraju bhaiya by Ramvriksha Benipuri

सरजू मैया नहीं, सरजू भैया । यह हमारे गाँव की विशेषता है कि कभी-कभी मर्द गंगा, यमुना और सरजू हो जाते हैं। इस बारे में औरतें ही सौभाग्यशालिनी हैं, प्रायः उनके नामों में ऐसे लिंग-संबंधी अनर्थ नहीं होते।

हाँ, तो सरजू भैया ! मेरे घर से सटा हुआ जो एक घर है- एक तरफ दो खपरैल के मकान, एक तरफ मिट्टी की दीवार पर फूस के छप्पर एक तरफ दो झोपड़े, एक तरफ मकान नहीं सिर्फ छोटा-सा आँगन निकाला हुआ- उसी घर के सौभाग्यशाली मालिक हैं हमारे सरजू भैया। सरजू भैया का छोटा भाई नहीं रहा, और मैने प्रथम संतान के रूप में ही अपनी माँ की गोद भरी; अतः हम दोनों ने परस्पर एक नाता जोड़ लिया है। वह मेरे बड़े भाई हैं, मैं उनका छोटा भाई|

गाँव के सबसे लम्बे और दुबले आदमियों में सरजू भैया की गिनती हो सकती है। रंग साँवला, बगुले-सी बड़ी- बड़ी बाँहे ! कमर में धोती पहने, कंधे पर अँगोछी डाले, जब खड़े होते हैं, आप उनकी पसलियों की हड्डियाँ गिन लीजिए । नाक खड़ी, लम्बी । भवें सघन । बड़ी-बड़ी आँखें, कोटरों में धँसी। गाल पिचके । अंग-अंग की शिराएँ उभरी। कभी- कभी मालूम होता, मानो ये नसें नहीं, उनके शरीर को किसी ने पतली डोरों से जकड़ रखा है। ऊपर की तस्वीर निस्सन्देह किसी भुखमरे, मनहूस आदमी की मालूम होती है। किन्तु, क्या बात ऐसी है? सरजू भैया मेरे गाँव के चन्द जिन्दादिल लोगों में से है। बड़े मिलनसार, मजाकिया और हँसोड़।

वह दिल खोलकर जब हँसते हैं। शरीर भर में जो सबसे छोटी चीजें उन्हें मिली हैं, वे उनके पंक्तिबद्ध छोटे-छोटे दाँत, तब बेतहाशा चमक पड़ते हैं, अंग-अंग हिलने-डुलने लगते हैं, जैसे हर अंग हँस रहा हो। और सरजू भैया के पास इतनी सम्पत्ति है कि वह खुद या अपने परिवार के ही पेट नहीं भर सकते, आगत अतिथि की सेवा-पूजा भी मजे में कर सकते हैं।

तो फिर यह ह‌ड्डियों का ढाँचा क्यों? मैं जबाव में एक पुरानी कहावत पेश करूँगा। काजी जी दुबले क्यों?- शहर के अंदेशे से। हाँ सरजू भैया की जो हालत है, वह अपने कारण नहीं, दूसरों के चलते । पराये उपकार के चलते उन्होंने न सिर्फ अपना यह शरीर सुखा लिया है, बल्कि अपनी संपत्ति की भी कुछ कम हानि नहीं की है।

उनके पिता, जो गुमाश्ता जी कहलाते थे, मेरे गाँव के अच्छे किसानों में से थे। साफ- सुन्दर उनका मकान और अच्छा-खासा बैठक खाना था, जहाँ आज सरजू भैया की यह राम मंड़ैया है। खेतीबारी तो थी ही, रुपये और गल्ले का अच्छा लेनदेन था। परिवार भी बड़ा और खर्चीला नहीं था। लेकिन, उनके मरते ही सरजू भैया ने लेन-देन चौपट किया, बाढ़ ने खेती बर्बाद की और भूकम्प ने घर का सत्यानाश किया। उनका लेन-देन इतना अच्छा था कि वह शायद खेती को भी सँभाल देता, घर भी खड़ा कर सकता किन्तु, सरजू भैया और लेन-देन?

लेन-देन, जिसे नग्न शब्दों में सूदखोरी कहिए, चाहता है, आदमी आदमीपन को खो दे, वह जोंक, खटमल नहीं, चीलर बन जाए। काली जोंक और लाल खटमल का स्वतंत्र अस्तित्व है। हम उनका खून चूसना महसूस करते हैं, हम उनमें अपना खून प्रत्यक्ष पाते हैं और देखते हैं। लेकिन चीलर? गंदे कपड़े में, उन्हीं सा काला कुचैला रंग लिये वह चीलर चुपचाप पड़ा रहता है और हमारे खून को यों धीरे-धीरे चूसता है और तुरंत उसे अपने रंग में बदल देता है कि उसका चूसना हम जल्द अनुभव नहीं कर सकते और अनुभव करते भी हैं, तो जरा सी सुगबुगी या ज्यादा-से-ज्यादा चुनमुनी मात्र और अनुभव करके भी उसे पकड़ पाने के लिए तो कोई खुर्दबीन ही चाहिए।

सरजू भैया चीलर नहीं बन सकते थे। उनके इस लम्बे शरीर में जो हृदय मिला है वह शरीर के ही परिमाण से है। जो भी दुखिया आया, अपनी विपदा बताई, उसे देवता-सा दे दिया और वसूलने के समय जब वह आँखों में आँसू लाकर गिड़‌गिड़ाया, तो देवता ही की तरह पसीज गए। सूद कौन, कुछ दिनों में मूलधन भी शून्य में परिणित हो गया।

बाढ़ और भूकम्प ने उनके खेत और घर को बर्बाद किया जरूर, लेकिन सरजू भैया, मेरा यकीन है, आज फटेहाली से बहुत कुछ बचे रहते, यदि लेन-देन के बाद भी वह इन दोनों की तरफ ही पूरा ध्यान दिए होते। यह नहीं, कि वह जी चुरानेवाले या आलसी और बोदा गृहस्थ है। नहीं, ठीक इसके खिलाफ चतुर, फुर्तीला और काम-काजी आदमी हैं। लेकिन करें तो क्या? उन्हें दूसरे के काम से ही कहाँ फुर्सत मिलती है!

गंगोबाई के घर में बच्चा बीमार है, वैद को बुलाने कौन जाएगा, सरजू भैया! हिरदे को बाजार से कोई सौदा-सुलफा लाना है, वह किसे भेजें, सरजू भैया को? खबर आई है, रामकुमार के मामाजी अपने गाँव में सख्त बीमार हैं,वहाँ किसे भेजा जाए; सरजू भैया से बढ़कर कौन दूसरा धावन होगा? परमेसर को एक रजिस्टरी करानी है, शिनाख्त कौन करेगा, सरजू भैया, किसी के घर में शादी-ब्याह, यज्ञ-जाप हो; और सरजू भैया अस्तव्यस्त, किसी की मौत हो जाने पर, यदि वह अँधेरी रात में हो, तो निश्चय ही उसका कफन खरीदने का जिम्मा सरजू भैया पर रहेगा। यों गाँव भर के लोगों का अपने सिर पर लेकर सरजू भैया ने न अपने खेत और अपने घर को मटियामेट किया है, बल्कि इसी उम्र में अपनी कमर भी झुका ली है। दिन हो या रात, चिलचिलाती दुपहरिया हो या अँधेरी अधरतिया, सरजू भैया के सेवा- सदन का दरवाजा हमेशा खुला रहता है। विक्टर हह्यूगो ने अपनी अमर कृति 'ला मिजरेवल' में कहा है-डाक्टर का दरवाजा कभी बन्द नहीं रहना चाहिए और पादरी का फाटक हमेशा खुला होना चाहिए। सरजू भैया को निस्सन्देह इन दोनों का रुतबा अकेले हासिल है।

मेरे क्षुद्र से सरजू भैया का व्यक्तित्व अनुकरणीय, अनुसरणीय ही नहीं, वंदनीय, पूजनीय है। जब तक उन्हें देखता हूँ, मेरा 'ज्ञानी' मस्तक आप-से-आप उनके चरणों में झुक जाता है। लेकिन मेरे मन में सबसे बड़ी चोट लगती है तब, जब देखता हूँ, इस नर-रत्न की कद्र कहाँ तक होगी, बहुत से लोग इन्हें सुधुआ समझ कर ठगने की चेष्टा करते हैं। यदि यही बात होती, तो भी बर्दाश्त की जा सकती, लेकिन यही नहीं, इन्हें जब तब झंझटों में डालने की कोशिशें होतीं और यदि अकस्मात् झंझटों में पड़ जाते, तो उससे निकालने की क्या बात, इनके तड़पने का तमाशा देखने में लोग मजा अनुभव करते हैं। 

अभी थोड़े दिनों की बात है। एक दिन सरजू भैया मेरे सामने आकर खड़े हुए। मैं कुछ पढ़ रहा था। सिर नीचा किए ही कहा, बैठिए भैया । किन्तु भैया बैठेंगे क्या, उनकी तो घिग्गी बँधी है और आँखों से आँसू जा रहे हैं। दुबारा कहने पर भी जब नहीं बैठे, तो उनकी और नजर उठाई। उनका चेहरा देख दंग रह गया। मैं सन्न, क्या बात है यह? बहुत आश्वासन और आग्रह पर उनकी जीभ हिली। मालूम हुआ, उनके घर में एक छोटी-सी घटना हो गई है ऐसी घटनाएँ अपने ही गाँव में मैंने कई बार होते देखी हैं। लेकिन किसी ने उस ओर ध्यान नहीं दिया, यदि जरूरत हुई तो उन्हें सुलझा दिया और यदि किसी ने उसे बढ़ाना चाहा तो लोगों ने उसको डाँट दिया। क्यों? क्योंकि वे घटनाएँ ऐसे घरों में हुई थी जिनके पास न सिर्फ लक्ष्मी, बल्कि दुर्गा जैसे और लाठी भी। लेकिन सरजू भैया ने तो लोगों के लिए यह हालत कर रखी
 

 

 

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है। न वह किसी पर धन का थाँस जमा डंडे से डरा सकते है। फिर, क्यों न उन्हें तड़पाया जाए? मैंने उन्हें आश्वासन दिया, उन्हें धैर्य हुआ, वह चले गए, लेकिन रात भर लोगों की इस कृतघ्नता ने मुझे चैन से न सोने दिया।
 

सुधुआपन से ठगे जाने की एक कहानी। बहुत दिन हुए, मैं किसी जरूरत में था और कुछ रुपये के लिए परेशान था। सरजू भैया के पास कुछ रुपये थे। मेरी बेचैनी वह कैसे देखते ? वह रुपये ले आए। मैंने खर्च कर दिया, लेकिन आज तक नहीं सका। रुपये तो आए, लेकिन एक आया, दो का खर्च लेकर। सरजू भैया माँगने का हाल क्या जानें? मैं भी समझता रहा, उनके रुपये कहाँ जाते हैं, जरूरत होगी, माँगेंगे, दे दूँगा। लेकिन, अभी उस दिन जो बात उन्होंने सुनाई, मैं हक्का-बक्का रह गया।


इस बीच में उन्हें रुपये की जरूरत हुई, लेकिन संकोचवश मुझसे नहीं माँगा। एक सूदखोर महाजन के पास गए, जो पहले से कर्ज खाता था, लेकिन तरह-तरह के कारनामों से अब धन्ना सेठ बन चुका है। उसने उन्हें रुपये दे दिए। लेकिन, जब चलने लगे, कहा- "आपके पास से रुपये जाएँगे कहाँ, लेकिन कोई सबूत तो चाहिए ही"। "क्या सबूत? मैं तैयार हूँ"-सरजू भैया रुपये बाँध चुके थे, न उनसे खोल कर लौटाया जा सकता था और न वह उसकी माँग को नामंजूर कर सकते थे। नहीं, कुछ नहीं कागज पर सिर्फ निशान बना दीजिए, आपसे बाजाब्ता हँडनोट क्या कराया जाए?" सरजू भैया ने बमभोला की तरह कजरीटे से अँगूठा बोर कर कागज पर चिपका दिया और चले आए, मानो, किसी आधुनिक एंटोनियो ने किसी कलजुगी शाइलीक के हाथ में अपने को गिरवी कर दिया। अब वह कहता है-"जल्द रूपए दे दो, नहीं तो नालिश कर दूँगा। और नालिश कितने की करेगा, कौन ठिकाना" सरजू भैया बेचारगी में बोल रहे थे और मैं उनका मुँह आश्चर्य से देख रहा था। "आपने ऐसी गलती क्यों कर दी" ? लेकिन इसके अलावा, इसका जवाब वह क्या दे सकते थे कि क्या करूँ रुपये बाँध चुका था।
 

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